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कविता

ये उर्वर दिन और रात

शिरीष कुमार मौर्य


(पल्‍लवी कपूर* को याद करते हुए)

उसका घर कहीं नहीं था

वह रात में रह सकती थी
डरावने घटाटोप और तमाम दुःस्वप्नों के बावजूद बस सकती थी दिन के
उजाले में भी मूँदकर अपनी आँखें
चुंधियाती हकीकतों को
धता बताती

वह जा सकती थी रात और दिन की हदों से भी बाहर किसी अनजान दुनिया में
फिर अचानक मुझे पुकारती लौट आती
उसका हृदय काँपता था मुझसे बात करते

कभी उत्तेजना तो कभी हताशा से
उसके भीतर हजारों मधुमक्खियों का गुंजार था
मानो
किसी गुप्त कोष में संचित शहद को
बचाता हुआ

उसे कुछ नहीं आता था
वैसे थी बहुत होशियार- बेहद कामयाब
बड़ी-बड़ी कंपनियों के
खाते जाँचती कुशल लेखाकार
लेकिन उसे कुछ नहीं आता था

न बात करना
न बात सुनना

न गुस्सा करना
न गुस्सा सहना

बकौल खुद प्यार करना भी नहीं आता था उसे अपने ही मर्म को कुरेदती
किसी अभिशापित ऋषिकन्या-सी
वह जैसे तीन हजार बरस पहले के वन में भटकती थी

मैं उसकी पहुँच से उतना ही बाहर था
जितना कि अमरूद के पेड़ पर चढ़ी कोई चपल गिलहरी

उसे इसका कोई ग़म नहीं था

कहती - गिलहरियाँ तो देखकर खुश होने को होती है
पकड़कर बांधने को नहीं

मेरे पास कोई दिलासा नहीं था उसके लिए
लेकिन हजारों थे उसके पास

और उन्हीं में से एक सबसे खास को
चुनकर मेरे लिए
ठीक मेरे जन्म वाले दिन
एक भयानक सड़क-दुर्घटना के बाद
अस्पताल के
                      बेदाग
                     सफे़द
                     स्वप्नहीन बिस्तर पर
छटपटाती वह चली गई
आखिरी बार
रात और दिन की हदों से बाहर

अब भी मैं जैसे सुन पाता हूँ
उसकी पुकार
किसी गहरे आदिम बुखार में बड़बड़ाता
पसीना-पसीना

अचानक कहीं से आकर थाम लेता है
कोई हाथ

गिरते-गिरते स्मृति की अंतहीन खाई में
लौट आता हूँ
फिर-फिर रहने को इसी चहल-पहल भरी दुनिया में
अगोरता
किसी कर्मशील किसान-सा

उसके बाद भी बचे हुए
जीवन से ये कई-कई
उर्वर दिन और रात!
 
* पल्‍लवी का 28 की उम्र में 13 दि संब र 2005 को दे हांत हो गया
 


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